ऑनलाइन गेम पबजी खेलने से रोकने पर 17 साल के बेटे द्वारा अपनी मां की गोली मार कर हत्या करने के मामले में चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। पुलिस के अनुसार घटना के बाद से अभी बच्चे का व्यवहार एकदम सामान्य है, उसे लगता है उसने जो किया है वो एकदम सही किया है। वहीं बच्चे ने पुलिस को बताया कि ‘मुझे हर बात के लिए ब्लेम किया जाता था। मेरी गलती हो या न हो। मैं खेलने भी जाता था तो भी मां शक करती थी।’ पुलिस के अनुसार बच्चा पहले भी घर से कई बार भाग चुका था। उसका स्वभाव बाकी बच्चों से थोड़ा तो अलग है। इस केस में बच्चे के फोन का डेटा और टॉक वैल्यू मां ने रिचार्ज नहीं कराया था। अभी ये मां के ही फोन का ज्यादा इस्तेमाल करता था। घटना के बाद भी ये मां के मोबाइल से गेम खेलता रहा। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि इस केस को जितना समझ रहे हैं उस हिसाब से बच्चे को अपनी मां को मारना ही नहीं था, बल्कि गुस्सा निकालना भी था, तभी उसने एकसाथ छह गोलियां चलाईं। ऐसा भी लगता है कि यह बच्चा लम्बे समय से डिप्रेस्ड और परेशान रहा है। कुंठा से ग्रसित होगा। पहचान की भी क्राइसिस थी। बच्चे के व्यवहार को समझना बहुत ज़रूरी है। अगर जिद कर रहा है तो किस हद तक कर रहा है। इसमें कुछ न कुछ मनोवैज्ञानिक वजह थी।
उल्लेखनीय है कि लखनऊ के पीजीआई क्षेत्र के पंचमखेड़ा स्थित यमुनापुरम कॉलोनी में 40 वर्षीया साधना सिंह अपने बेटे और बेटी के साथ रहती थीं। 17 वर्षीय बेटे ने चार जून की रात में करीब दो-तीन बजे पिता की लाइसेंसी पिस्तौल से अपनी मां की गोली मारकर हत्या कर दी। इस घटना के बारे में ख़ुद बेटे ने 7 जून की पिता को फोन कर जानकारी दी। घटना के तीन दिनों तक अभियुक्त अपनी 10 वर्षीय बहन के साथ उसी घर में रहा। जब शव की बदबू बर्दाश्त से बाहर हुई तब उसने अपने पिता को सूचना दी। बच्चे को बाल सुधार गृह भेज दिया गया है। अभी लीगल प्रासेस चल रहा है। पुलिस के मुताबिक बच्चे के पिता का कहना है कि इसे गेम खेलना और लड़कियों से चैट करने की बहुत आदत थी। मम्मी उसे यह सब करने से मना करती थीं। मोबाइल के इस्तेमाल पर पाबंदी उसे पसंद नहीं थी।
बच्चे को अपनी मां को मारना ही नहीं था, बल्कि गुस्सा निकालना भी था, तभी उसने एकसाथ छह गोलियां चलाईं
मनोचिकित्सकों के अनुसार कुछ बच्चों का स्वभाव ऐसा होता है जिन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं होता है, इसे पुअर इम्पल्स कंट्रोल कहते हैं। ऐसे बच्चे बहुत कुछ साजिश बनाकर कोई कदम नहीं उठाते बल्कि आवेश में आकर ऐसा करते हैं। कई बार ये छोटे भाई-बहनों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। आजकल इस तरह की घटनाओं की मुख्य वजह एकल परिवार हो गए हैं। पहले संयुक्त परिवार में बच्चे सबसे बात करते थे और परिवार के सदस्यों के साथ ही विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त रहते थे लेकिन अब इनकी दुनिया मोबाइल और टीवी हो गई है। एकल परिवार में अगर माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं तो बच्चे बहुत अकेले पड़ जाते हैं। ऐसे बच्चों को अपनी बात ज़ाहिर करने का मौका ही नहीं मिलता है। इस स्थिति में बच्चे को मोबाइल की लत हो जाती है। कई बच्चे हैं जो अब भी दिन के 8 से 10 घंटे फोन पर गेम खेलते हैं। ऐसे बच्चे बहुत चिड़चिड़े, जिद्दी और गुस्सैल होते हैं।
अभियुक्त के मामा के अनुसार अभी पिछले महीने ही जीजाजी छुट्टी से वापस गये थे। बच्चा (आरोपी) छुट्टियों में अक्सर ननिहाल आता था। क्रिकेट खेलने का बहुत शौकीन है, पर कभी-कभी ज्यादा पैनिक हो जाता है। जो काम कर रहा हो अगर उसे मना करो तो गुस्सा ज्यादा करता है, पर अब ये लक्षण तो ज्यादातर बच्चों में होते हैं इसलिए कभी ऐसा लगा नहीं कि उसे डॉक्टर को दिखाया जाए। अब पता नहीं कैसे उसने इतना बड़ा कदम उठा लिया? फोन पर गेम खेलने का लती था। पिछली बार हाईस्कूल में फेल हो गया था इस बात को लेकर भी वो थोड़ा परेशान था। जबसे उसके नंबर कम आए थे दीदी (मृतका) थोड़ा पढऩे के लिए बोलती थीं और फोन चलाने से मना करती थीं। कई बार उससे फोन छीना भी गया। तभी शायद गुस्से में आकर उसने यह कदम उठाया।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि मोबाइल में एक क्लिक पर बहुत कुछ खुल जाता है। बच्चे गेम के अलावा अलग-अलग साइट पर जाते हैं जहां वो एक समय बाद काल्पनिक दुनिया में जीने लगते हैं। पांच साल से 12 साल की उम्र बच्चों की देखरेख के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस उम्र में उन्हें सुनने और समझने की बहुत जरूरत है। लड़कों में एक अपोज़िशनल डिफ़ाइन डिसऑर्डर (ओडीडी) के लक्षण आठ साल की उम्र में दिखने शुरू हो जाते हैं। जैसे अगर आप कुछ बोल रहे हैं तो बच्चा उसका विरोध कर रहा है, बच्चा किसी बात पर बहस बहुत करता है। इस तरह के बच्चे एग्रेसिव बहुत होते हैं। ये कोई सोशल नॉर्म को नहीं मानते हैं। आप जो कहेंगे ये ठीक उसका उल्टा ही करते हैं। ये बहुत कॉमन डिसऑर्डर हैं। अगर शुरुआती समय में ही इन बच्चों को मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया जाता है तो इनके लक्षणों में सुधार हो जाता है। जब बच्चे 8 साल के होते हैं तब उन्हें बहुत सुपरविजन की जरूरत होती है। इस उम्र में हार्मोनल चेंज होते हैं तब उनके मन में बहुत ज्यादा उथल-पुथल चल रही होती है। इस उम्र में बच्चों के लिए एडजस्टमेंट का मामला होता है। ये इस उम्र में स्वतंत्रता चाहते हैं। अगर समय रहते बच्चों की काउंसलिंग नहीं की गई तो मुश्किलें हो सकती हैं। बच्चों से प्रतिदिन आधे-एक घंटे बात करना बहुत जरूरी है। कौन सी चीजों पर बच्चा क्या रिएक्ट कर रहा है, इस पर नजर रखें। अधिकतर काउंसलिंग में यह निकलकर आया कि 95 प्रतिशत पेरेंट्स बच्चों को सुनते ही नहीं हैं, जिससे बच्चों को अपनी बात एक्सप्रेस करने का मौका नहीं मिलता है।